धार्मिकस्थलों का पर्यटन स्थलों में बदलना, आस्था या व्यवसाय: श्वेता शर्मा
राजेश कुमार देहरादून प्रभारी
हरिद्वार की गूंज (24*7)
(राजेश कुमार) देहरादून। भारत को देवभूमि कहा जाता है, क्योंकि यहाँ साक्षात् देवताओं का वास माना गया है। हमारे पवित्र धार्मिक स्थल प्राचीन काल से ही दैविक ज्योति के प्रतीक रहे हैं, जो आज भी श्रद्धालुओं की आस्था को प्रज्वलित करते हैं। ऐसा विश्वास है कि जब कोई व्यक्ति इन धार्मिक स्थलों की यात्रा पर निकलता है तो वह केवल दर्शन ही नहीं करता, बल्कि प्रत्येक कदम पर अपने कर्मों के भारी बोझ से मुक्त होता जाता है। इन यात्राओं के दौरान मनुष्य अपनी आत्मा को पवित्र करता है और जीवन के वास्तविक उद्देश्य को समझने लगता है। सनातन धर्म में तीर्थ यात्राओं को केवल यात्रा नहीं, बल्कि एक आत्मिक साधना माना गया है। जो शरीर को थकाती नहीं, बल्कि आत्मा को जागृत करती है। लेकिन आज एक बहुत गंभीर समस्या सामने आ रही है जिन स्थानों को श्रद्धा, मौन और भक्ति का केंद्र होना चाहिए, वे धीरे-धीरे व्यापार और पर्यटन केंद्र बनते जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि आस्था की जगह अब कमाई ने ले ली है।आज किसी भी बड़े धर्मस्थल पर मंदिर से पहले होटल दिखता है, पूजा से पहले टिकट काउंटर मिलता है, दर्शन से पहले बिचौलिए रास्ता रोक लेते हैं। श्रद्धालु का मन भक्ति से भरने से पहले ही दुकानों, ठेलों और भीड़ के कोलाहल से थक जाता है। धार्मिक स्थल अब “पर्यटन स्पॉट” कहे जाने लगे हैं, जहां तस्वीर लेने और घूमने की भावना अधिक दिखती है, भक्ति और शांति कम। पवित्र स्थलों की मूल भावना कहीं खो गई है।भीड़ नियंत्रित करने के नाम पर सरकार ने कई जगह टिकट सिस्टम लगा दिया। दर्शन भी अब श्रेणियों में बांट दिया गया साधारण दर्शन, आरती दर्शन, VIP दर्शन, विशेष दर्शन। प्रश्न यही उठता है कि क्या प्रभु से मिलने के भी दरवाज़े अलग-अलग होने चाहिए? क्या भक्त की आस्था उसकी जेब देखकर मापी जाएगी? मंदिरों के मुख्य द्वारों के आसपास जो अतिक्रमण हुआ है, उसने पवित्रता को जैसे दबा दिया है। कई पवित्र मार्ग अब दुकानों, पार्किंग और गाड़ियों से घिरे हैं। बड़े मंदिरों में बोर्ड तक लगाए जाते हैं। “इस दिशा से सेल्फी प्वाइंट”, “गाइड फीस”, “शॉपिंग जोन”। जाने-अनजाने हमारे धार्मिक स्थल धीरे-धीरे अपने मूल स्वरूप से दूर होते जा रहे हैं। भक्त का मन शांत होने के बजाय थक जाता है। लंबी लाइनें, शोर, दाम का झंझट इन सबके बीच भक्ति की अनुभूति दब जाती है। ऐसा लगता है जैसे आस्था पीछे रह गई और व्यापार आगे निकल गया।यदि सरकार सच में धार्मिक स्थलों की पवित्रता बचाना चाहती है तो उसे ठोस कदम उठाने होंगे।
धार्मिक स्थलों के आसपास निश्चित दूरी तक नो-कॉमर्शियल ज़ोन घोषित किए जाएं।
टिकट या VIP दर्शन की व्यवस्था खत्म हो — दर्शन सबके लिए समान हो।
पारंपरिक मार्गों को संरक्षित किया जाए।
भीड़ नियंत्रण के लिए तकनीकी व्यवस्था हो, न कि व्यापारिक व्यवस्था
किसी भी धर्मस्थल को मात्र “टूरिस्ट स्पॉट” के रूप में प्रचारित न किया जाए।
धर्मस्थल केवल पर्यटन के लिए नहीं होते; वे आत्मा के स्पर्श के लिए होते हैं। यदि समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाली पीढ़ियां केवल सुंदर इमारतें देख पाएंगी — उस आत्मिक शांति, भक्ति और ऊर्जा को नहीं महसूस कर पाएंगी, जो कभी इन स्थानों की सबसे बड़ी पहचान हुआ करती थी।











