हरिद्वार

आतंकवाद की बढ़ती घटनाएँ: चुनाव प्रक्रिया में बाधा डालने की साज़िश तो नही?

राजेश कुमार हरिद्वार संवाददाता

हरिद्वार की गूंज (24*7)
(राजेश कुमार) हरिद्वार। हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड राज्यों‌ के साथ-साथ इसी वर्ष जम्मू-कश्मीर में भी चुनाव होने हैं। 21 नवंबर 2018 को राज्यपाल द्वारा जम्मू और कश्मीर की विधानसभा भंग कर दी गई थी। 6 महीने की अवधि के भीतर नए चुनावों की उम्मीद भी की गई थी, लेकिन बाद में नए निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं के कार्यान्वयन की अनुमति देने के लिए यहाँ चुनाव स्थगित कर दिया गया था। 5 अगस्त 2019 को केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को दिए गए विशेष दर्जे को खत्म करने और क्षेत्र को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित करने की घोषणा की। जम्मू-कश्मीर के सीमांत क्षेत्र पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सिंक्यांग तथा तिब्बत से मिले हुए थे। भारतीय संसद ने 5 अगस्त को इस राज्य की‌ राजनीतिक स्थिति में भारी बदलाव करते हुए विधानसभा सहित केंद्रशासित प्रदेश बना दिया तथा लद्दाख को भी जम्मू कश्मीर से अलग करके, उसे भी अलग केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया गया। 2019 से पहले, जम्मू और कश्मीर राज्य में एक द्विसदनीय विधायिका थी, जो विधान सभा (निचला सदन) और विधान परिषद (उच्च सदन) से मिलकर बनी थी जम्मू और कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्ष (अब 5 वर्ष) का होता था। अगस्त 2019 में भारत की संसद द्वारा पारित जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 ने इसे एकसदनी विधायिका में बदल दिया, साथ ही राज्य को पुनर्गठित (द्विभाजित) कर इसे एक केन्द्र-शासित प्रदेश बना दिया। काफी समय तक कश्मीर घाटी के शांत रहने के बाद, अचानक तेजी से बढ़ती हुई आतंकवादी घटनाएँ तथा हमारे सैनिकों की लगातार होती शहादत का बढ़ता सिलसिला, यह शंका पैदा करता है कि कहीं यह घटनाएँ, जम्मू कश्मीर तथा लेह-लद्दाख़ में आसन्न विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया में रोड़े अटकाने तथा उसको पटरी से उतरने की कुत्सित साजिश तो नहीं है! इस पर आज हमें बहुत गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। और, यदि ऐसा है तो यह अंदरूनी राजनीतिक उठापटक का विषय न होकर एक गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए और इससे निपटने के प्रयास सभी राजनीतिक दलों को एक साथ मिल-बैठ कर करने चाहिए। आने वाले विधानसभा के चुनाव में किस पार्टी को कितनी सीटें  मिलेंगी, किस राजनीतिक दल की सरकार को बहुमत मिलेगा? किसकी सरकार बनेगी? इस पर विचार तो बाद में भी किया जा सकता है? परन्तु, अभी की कोशिश किसी भी कीमत पर कश्मीर घाटी में शांति की पूर्णता बहाली के लिए होनी चाहिए, ठीक ‘मैं रहूँ या ना रहूँ, ये देश रहना चाहिये’ की तर्ज‌ पर। विगत अनेक वर्षों का घटनाक्रम इस बात का गवाह रहा है, कि जब-जब भारत में जम्मू कश्मीर को लेकर कोई राजनीतिक या सामाजिक प्रक्रिया होती है, जब कभी भारत में कोई अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन या अधिवेशन होना होता है, भारतीय राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री किसी बड़े विदेशी दौरे पर प्रस्थान करते हैं, या किसी बड़े राष्ट्र के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सुल्तान, अथवा राजा भारत की यात्रा पर पधारते हैं, तो उसी समय, सीमा पार से गोलीबारी की घटनाओं के साथ-साथ, इस प्रकार की आतंकवादी घटनाओं में भी, यकायक इजाफा हो जाता है। कहने को तो, इन घटनाओं‌ का एक‌मात्र उद्देश्य, अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान, जम्मू-कश्मीर की तरफ़ खींचना होता है, जबकि यह पूरी तरह से भारत का घरेलू मामला है, जिसमें किसी भी बाहरी देश की, कोई भूमिका नहीं है। परन्तु, सीधे तौर पर इसका ख़ामियाज़ा, पूरे देश को उठाना पड़ता है। हमारी फौज के सैनिकों और फौजी अफसरों की मौतों का सिलसिला लगातार बढ़ता है, और इसके साथ ही साथ, देश में एक भय का वातावरण बनता है। इतना ही नहीं, भय के इसी वातावरण में हमारे ही देश के अन्दर छिपी बैठी, राष्ट्र विरोधी ताकतों को भी सिर उठाने का बल मिल जाता है। अभी पिछले ही दिनों एक ही रात में छोटे से राज्य उत्तराखण्ड के पाँच लाड़ले सपूत आतंकियों की गोलियों का शिकार हुए।‌ उत्तराखंड से शहीद होने वाले थे- सूबेदार आनंद सिंह हवलदार कमल सिंह राइफलमैन अनुज नेगी राइफलमैन आदर्श नेगी और नायक विनोद सिंह शामिल थे। इनमें‌ केवल पौड़ी व टिहरी जिले के दो-दो बहादुर थे, जबकि, सूबेदार आनंद सिंह रुद्रप्रयाग जनपद के कांडा भारदार ग्राम के निवासी थे। उसके बाद भी यह सिलसिला अभी तक थमा नहीं है। स्थिति तो यहाँ तक गंभीर हालत में पहुँच चुकी है, कि एक तरफ हमारे सैनिक आतंकवादियों को कश्मीर घाटी में तलाश रहे होते हैं और जिस स्कूल में वे रुकते हैं, उसी पर ग्रेनेड अटैक हो जाता है। स्थिति वाकई गम्भीर है। उल्लेखनीय है कि, पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंद्र कुमार गुजराल के कार्यकाल के समय से भारतीय विदेश नीति में तमाम सारे परिवर्तन दिखाई देने शुरु हो गये थे। आपसी सम्बन्ध सुधारने के प्रयासों के अन्तर्गत ‘गिव समथिंग, टेक समथिंग’ (कुछ दे दो, कुछ लेलो) का ‘गुजराल फार्मूला’ अपनाया गया। इससे न केवल पाकिस्तान, श्रीलंका व अफगानिस्तान जैसे पड़ोसी देशों, बल्कि, अमेरिका, रूस, इज़राइल व दक्षिण अफ्रीका जैसे बड़े देशों‌ के साथ भी भारत के सम्बन्धों में व्यापक परिवर्तनों‌ का दौर आया और यह क्रम तीसरी बार भारत की सत्ता संभालने वाले प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की अगवाई में आज भी लगातार जारी है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि, केवल चीन को छोड़कर, दुनिया के सारे बड़े देश, आज संयुक्त राष्ट्र संघ सुधारों के अन्तर्गत, सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता का समर्थन करने को एकजुट हुए बैठे हैं। अब शायद यही वह बातें हैं जो भारत विरोधियों को समझ में नहीं आ रही है अर्थात्‌ अच्छी नहीं लग रही हैं। चाहे पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई के समय उनकी लाहौर बस यात्रा रही हो, अथवा पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ का आगरा दौरा। भारत में आयोजित हुए एशियाई या कॉमनवेल्थ खेल रहे हों, या फिर, जी-20 जैसे सम्मेलनों का आयोजन, एक सोची समाज हुई साजिश के तहत, ऐसा कोई भी मौका सीमा पार की पाकिस्तानी फौजों अथवा घर में घुसे बैठे आतंकवादियों, द्वारा छोड़ा नहीं गया है, जब उस समय सीमा पार से गोलीबारी या जम्मू कश्मीर में आतंकवादी की घटनाएं ना हुई हों। अब वक्त आ चुका है, जबकि, इन सभी संकेत के माध्यम से दीवार पर लिखी सभी इन सभी इबारतों को ध्यान से पढ़ना होगा और इनसे निपटने के लिए, पुख्ता इंतज़ाम भी करने होंगे और यह इंतज़ाम अपनी-अपनी पार्टियों की राजनीतिक रोटियाँ सेंक कर नहीं, बल्कि, एक जुट होकर, मिल-बैठ कर योजना बनाने और उसे युद्धस्तर पर कार्यान्वित करने से ही संभव होगा।

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