रील्स की ताकत या कमज़ोरी, बदलाव का विरोधाभास
सोशल मीडिया ने क्रांति को लोकतांत्रिक बनाया, डिजिटल क्रांति विचार अब प्रदर्शन नहीं प्रस्तुतियाँ बन गए

हरिद्वार की गूंज (24*7)
(रजत चौहान) हरिद्वार। आज का भारत एक ऐसी धरती हैं, जहाँ क्रांति का रंग बदल चुका हैं। पहले जहाँ सड़कों पर नारे, धरने और अनशन व्यवस्था को चुनौती देते थे। वहीं अब स्मार्टफोन की स्क्रीन पर रील्स ने वह जगह ले ली हैं। एक मिनट की वीडियो, जिसमें हल्का-सा मज़ाक, थोड़ा-सा गुस्सा और ढ़ेर सारा ड्रामा हो और लाखों लोगों तक पहुँचकर तहलका मचा देती है। सोशल मीडिया खासकर रील्स ने हर किसी को अपनी बात कहने का मंच दे दिया हैं। लेकिन इसी मंच ने एक अजीब-सी विडंबना को जन्म दिया हैं। रील्स से क्रांति ट्रेंड करती हैं मगर रीयल में सवाल उठाने वाले को जेल की सैर करनी पड़ती हैं। यह विरोधाभास हमारे समाज, हमारी व्यवस्था और हमारे समय की सच्चाई को उजागर करता हैं। सोशल मीडिया ने क्रांति को लोकतांत्रिक बनाया-
अब न तो किसी बड़े संगठन की ज़रूरत हैं, न विचारधारा की गहरी समझ की, और न ही लंबे भाषणों की। बस एक स्मार्टफोन, थोड़ा-सा अभिनय और एक ट्रेंडिंग ऑडियो ही काफी है। एक नौजवान, जो कभी मंचों तक नहीं पहुँच पाता था, आज अपनी रील्स के ज़रिए लाखों लोगों तक अपनी बात पहुँचा सकता है। शिक्षा, बेरोजगारी, महिला सुरक्षा या सामाजिक अन्याय जैसे गंभीर मुद्दों को वह मज़ेदार डायलॉग, इमोशनल बैकग्राउंड म्यूज़िक और कैची कैप्शन के साथ पेश करता है। नतीजा? उसकी बात वायरल होती है, लोग तारीफ करते हैं, और वह रातों रात स्टार बन जाता हैं। लेकिन यही बात अगर कोई सड़क पर उतरकर, पोस्टर लेकर या नारे लगाकर कहे, तो उसे पुलिस का डंडा, एफआईआर या जेल का रास्ता दिखाया जाता हैं। सवाल उठाने वाले को एजेंट करार दिया जाता, आंकड़े इस विडंबना को और स्पष्ट करते हैं, 2023 में भारत में विभिन्न विरोध प्रदर्शनों के दौरान लगभग 3,000 लोग गिरफ्तार किए गए, जिनमें से कई शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारी थे। नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो, 2023 दूसरी ओर उसी साल इंस्टाग्राम पर सामाजिक मुद्दों से जुड़ी रील्स को अरबों बार देखा गया, और उनमें से ज़्यादातर बिना किसी कानूनी कार्रवाई के ट्रेंड करती रहीं। यह अंतर सिर्फ़ माध्यम का नहीं, बल्कि समाज की मानसिकता का भी है। रील्स में मुद्दों को पैकेज किया जाता है। एक मिनट की क्लिप में हल्का-सा हास्य, थोड़ा-सा गुस्सा और ढे़र सारी नाटकीयता डालकर उसे मनोरंजन का रूप दे दिया जाता है। लोग उसे देखते हैं, लाइक करते हैं, शेयर करते हैं और फिर भूल जाते हैं। लेकिन जब वही मुद्दा सड़क पर, संसद के सामने या किसी धरने में उठाया जाता हैं, तो वह व्यवस्था के लिए खतरा बन जाता हैं। सवाल उठाने वाले को किसी विचारधारा का एजेंट करार दे दिया जाता है। उदाहरण के लिए 2020-21 के किसान आंदोलन में लाखों लोग सड़कों पर उतरे, लेकिन उनकी आवाज़ को दबाने के लिए न केवल बल प्रयोग किया गया, बल्कि 700 से ज़्यादा किसानों की जान गई इंडियन एक्सप्रेस, 2021 वहीं सोशल मीडिया पर किसानों के समर्थन में बनी रील्स को करोड़ों व्यूज़ मिले, और उनके क्रिएटर्स को ब्रांड डील्स तक ऑफर हुए। यहाँ सवाल यह हैं, कि क्या रील्स वास्तव में क्रांति ला रही हैं, या सिर्फ़ मनोरंजन का नया रूप बन रही हैं। आम इंसान को अपनी आवाज़ बुलंद करने का मंच दिया। 2024 तक भारत में इंस्टाग्राम के 50 करोड़ से अधिक यूज़र्स थे, जिनमें 70 से ज़्यादा 18-34 आयु वर्ग के युवा थे स्टेटिस्टा, 2024 इन युवाओं ने रील्स को केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव का ज़ोरदार हथियार बनाया। बदलाव की शुरुआत स्क्रीन से हो सकती है, लेकिन उसका अंत हमें असल दुनिया में करना होगा, जहाँ जोखिम, मेहनत और समर्पण ही सच्ची क्रांति को जन्म देते हैं।